Monday, March 28, 2011

अजीब शहर है अजब सियासत है.

ऩजर उठी थी तो आगाज़-ए-साज़ और बजा
नज़र झुकी कि अंजाम बदल जाता है...

मुझे न खौफ़ है न खुंदश है इस रवायत से,
मलाल ये कि मेरा काम बदल जाता है..

प्याला खनका भी नहीं,पैमाना छलका भी नहीं
नशा जमा भी नहीं कि जाम बदल जाता है

अजीब महफिल है,अजीब आलम है..
दो महीना भी नहीं,निज़ाम बदल जाता है।

भरोसा मिलता है कुछ घर लौट कर जाते जाते
वापस आने पर पैगाम बदल जाता है

यहां इंसान भी फिरता है हालात-ए-वक्त की तरह
चेहरा देखकर सलाम बदल जाता है...

मिज़ाजे हुक्मरां तय करती है हवा-ए-रुख़
वक़्त के साथ खास-ओ-आम बदल जाता है

हर-एक-शख्स ने चेहरे पर डाल रख्खी है नक़ाब
ज़रुरत जैसी वैसा नाम बदल जाता है

वही है देखो जिसने अंधेरों में फैलाई अफ़वा
सुबह हुई तो वो सरेआम बदल जाता है..

अजीब शहर है अजब सियासत है..
सुबह कुछ और है...शाम बदल जाता है..

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