Monday, November 22, 2010

बेमौसम बदले मौसम ने दिवाना कर दिया...

इस हक़ीकत को झुठलाना खुद के साथ भी नाइंसाफी होगी कि बिन बुलाए, बैमौसम आए..बारिश ने प्रकृति को सुहाना बना दिया और दिल को दिवाना....लेकिन दिल के कहीं उदास कोने में बैठी एक कठोर सच्चाई पहले झुंझलाई फिर एक पीड़ा भरी गान गुनगुनाई जिसमें मेघ से उसके प्रताड़ना की उलाहना भी है और प्रणय निवेदन भी...सालों से बारिश की बेरुखी ने न जाने कितने आशियानों की ज़िंदगी


बरसो मेघ झमककर बरसो....
बिजली संग मटककर बरसो
आंख सहमकर दिल भर जाए...
ऐसा रंग चमककर बरसो...
सूखे खेत, हैं ताल भी सूखे...
बिन पानी तालाब भी भूखे...
भर जाए पेट और बह जाए पानी
ऐसा आज बहक कर बरसो....
बरसो मेघ झमककर बरसो...
बिजली संग चमककर बरसो....
जंगल जल गए...नदियां सूखीं...
राह निहारत तुझसे रुठीं...
अब न सताओ इन्हे मनाओ
इनकी दर महक कर बरसो
बरसो मेघ झमककर बरसो

Wednesday, October 27, 2010

चलिए आज आपको अपने गांव लेकर चलता हूं..

चलिए आपको अपने गांव लेकर चलता हूं...
पतली पगडंडी,घनी अमराइयों की छांव लेकर चलता हूं..
भोले की नगरी से 10 मील दूर ही है घर मेरा...
थून्ही है गांव चंदवक कस्बा ही शहर मेरा..
वही बाजार जहां चप्पल ना मिले बाटा की..
लेकिन हर रोज जहां बोली लगती टाटा की..
.....
.....क्रमशः जारी है...

अपना गांव भी अब बेगाना हो गया...


अब अपना गांव वो पुराना नहीं लगता...
किसी पिकनिक स्पॉट सा वो मौसियाना नहीं लगता
शादियां भी तो अब होती हैं हड़बड़ाहट में
बरगद के नीचे वो शामियाना नहीं लगता।
पोखरी गांव की आबादी में तब्दील हुई,
ताल बंटवारे के खेतों में हलाल हुआ
कोट कटकर जब परधान की दालान बनी
सुना कि इसको लेकर थोड़ा गांव में बवाल हुआ..
चार जो पेड़ थे पीपल के चारों कोनों पर..
हां वहीं पेड़ जिसमें लोग जल चढ़ाते थे
एक वो नीम का भी पेड़ था जिसके नीचे,
मुंशी जी डंडा लेकर हमे क..ख..ग..पढ़ाते थे..
कट गए पेड़ वो सारे कि एक झटके में..
बचपन में देखते जिस पर कुछ मिट्टी के मटके में
जानते हैं कि हुआ हश्र क्या उन पेड़ों का..
जल गए धूंधू कर सुनील सिंह के भट्टे में..
ऐसा नहीं था कि उन पेड़ों की उम्र पूरी थी..
या वो पेड़ गांव की विकास को अखरते थे..
ये अलग बात है कि बुढ़े बुढ़िया भी यूं बस चुप ही रहे..
शायद कुछ लोग थे जो सुनील सिंह से डरते थे..
....
....क्रमशः जारी है...

इसी शहर ने मेरी पहचान मुझसे छीन लिया


मेरे शहर ने मेरी पहचान मुझसे छीन लिया..
और..नई चलन ने मेरी ज़ुबान मुझसे छीन लिया..
पेट की भूख ने कुछ इस क़दर दस्तक दे दी..
ग़ुम मुस्कान हुई...और ईमान मुझसे छीन लिया..
....
....

नई पीढ़िया ग़ुम हुई नए तरानों में...
पुराने किस्से नहीं रह गए अफ़सानों में..
नानी की कहानियों की बात भी अब जाने दीजै,
गांव के बोल भी अब खो गए वीरानों में..
.....
.....क्रमशः जारी है....

Sunday, October 3, 2010

पलामू में भूख ने ली एक और जान

सूखे से जूझ रहे झारखंड में किसानों की स्थिति बदहाल हो चुकी है...44 सालों में 19 बार अकाल जैसे हालात का सामना कर पलामू के किसान बेगार ही नहीं बेजार भी हो चुके हैं...गरीब किसान दाने दाने को मोहताज हैं...बिन रोटी चार किसानों की मौत हो चुकी है...जबकि सियासत दां सूखे और अकाल को लेकर राजनीति की रोटी सेंक रहे हैं.... बिन कपड़े के भूखे पेट खड़े ये बच्चे अवाक़ है...किसी अनहोनी को भांपती ये बच्चियां खामोश...गांव के लोग मायूस हैं...और अभी तुरंत ही विधवा हुई ये महिला बेसुध...सूखे से उपजी गरीबी ने इसका सुहाग इससे छीन लिया...अपने पति की लाश के पास बैठी शायद यही सोच रही है कि आखिर अब अपने बच्चों की परवरिश कैसे करेगी...शायद भूखमरी के चलते ही..पांडेय भूइयां की मौत हो गई...उसके हिस्से पड़ा राहत का 10 किलो अनाज, उसकी मौत के बाद आज उसके घर पहुंचा है... सुखे ने खेत की हरियाली छीन ली...पेट की भूख घर का अनाज खा गई...बेगार हुए किसान बेकार हो गए...घास का बना हलुआ मां बच्चों को खिलाना चाहती है..जो थोड़े बड़े हैं वो चुपचाप खाने लगते हैं..शायद आदत पड़ चुकी है..लेकिन छोटा ठुनकने लगता है...लोग कहते हैं सबकुछ सूखे ने निगल लिया...और सरकारी मदद का दस किलो अनाज मांगने पर दस दस तरह के कानून बताए जाते हैं... दिनकर जी ने कहा था कि भूख जब बेताब हुई तो स्वाधीनता की ख़ैर नहीं...कुछ ही दिनों पहले पलामू के हजारों लोगों ने अनाज के गोदाम पर धावा बोल दिया...क्या करें भूख बर्दाश्त नहीं होती...हालांकि अधिकारी कहते हैं कि गांव गांव में अनाज बांटे जा रहे हैं...ये एक नज़ारा पलामू का है..जहां भूख से मौत हो रही है...बच्चे बिलख रहे हैं..लोग मायूस हैं...लेकिन अधिकारी संतुष्ट हैं....इस रिपोर्ट के लिए पलामू से नीरज कुमार का साभार....

Saturday, October 2, 2010

जहां महिलाएं करती हैं तर्पण और पिंडदान...

अभी तक शायद आप यही जानते हैं कि शास्त्रों में सिर्फ पुरुषों को ही पिंडदान और तर्पण का अधिकार दिया गया है। लेकिन मिरजापुर के विंध्य क्षेत्र में मातृ नवमी के दिन महिलाएं अपने पितरों का तर्पण करती हैं। मान्यता है कि वनवास के दौरान माता सीता ने सीताकुंड पर तर्पण किया था। तब से लेकर आज तक ये परपंरा चली आ रही है.... हाथ जोड़े पूजा कर रही ये महिलाएं अपनो पितरों का तर्पण कर रही है...सुनकर आपको हैरानी ज़रुर हो रही होगी लेकिन ये परंपरा सदियों से चली आ रही है। मिर्जापुर के विंध्य क्षेत्र में मातृनवमी के दिन महिलाएं अपने पितरों का तर्पण करती हैं...कहा जाता है कि वनवास के दिनों माता सीता ने काशी और प्रयाग के मध्य स्थित इसी जगह पर अपने पितरों का तर्पण किया था...तभी से इस परंपरा की शुरूआत हुई। शास्त्रों के अनुसार पुत्रों को ही तर्पण और पिंडदान करने का अधिकार हैं..कहते हैं सबसे बड़े या सबसे छोटे पुत्र से अर्पित जल ही पूर्वजों तक पहुंचता है.लेकिन सीताकुंड के इस पावन धाम पर यूपी, बिहार और मध्यप्रदेश के साथ ही देशभर से महिलाएं अपने पितरों को तर्पण करने आती हैं...अपना देश परंपराओं और मान्यताओं का देश हैं...इन्ही मान्यताओं और परंपराओं की एक बानगी यहां भी देखने को मिल रही है जो सदियों से चली आ रही है... इस रिपोर्ट के लिए मिर्जापुर से नितिन अवस्थी का सहयोग...

भूख के चलते मौत हुई या ग़रीबी के...?

Friday, September 17, 2010

कमाल का कमाल...जो लाजवाब कर गया...


यूं तो बुंदेलखंड की बदहाली को बहुतों ने बयां किया है लेकिन जिस शिद्दत से वहां की लज्जत को कमाल ख़ान ने परोसा उसकी मिसाल नहीं...लाजवाब कर गया कमाल...

बदला है लखनऊ....मगर तहजीब समेटे...

इस कड़ी में आपके सामने बहुत कुछ आएगा....सबसे पहले एनडीटीवी ख़बर से कमाल खान की ये रिपोर्ट जो मैं आपके लिए चुरा लाया....

Friday, September 10, 2010

सामधारी की मौत

सुशासन की सरकार में भी लोग भूख से मरते हैं....कुछ लोग हैं जो पेट की आग पर काबू पाने की कोशिश करते हैं..गोंद में हाथ डाल और पेट दबा कर ख़ुद को पेट भरे होने का एहसास कराते हैं..घुटनों को पेट से सटा कर सोने की कोशिश करते हैं...लेकिन जब उनके आंखों के तारे उनकी आंकों के सामने भूख से बिलबिलाते हैं...तो भूख की ये तड़प उनको तोड़ देती है..फिर उनको लगता हैं कि तिल तिल कर मरने से बेहतर है एक झटके में मौत को गले लगा लिया जाए...अपनी तड़प तो बर्दाश्त भी कर लें लेकिन अपने बच्चों को तड़प तड़प कर मरता आखिर कैसे देखें वो...ऐसी ही एक सच्ची कहानी है ये भी..जो सुसाशन के दावे वाली सूबे में घटी...हाकिम और हुक़्मरानों के लिए महज़ एक छोटी सी घटना भर लेकिन सामधारी नाम के ग़रीब की दुनिया सूनी हो गई...हां बदले में उसे चंद नोट मिल गए वो भी सुसाशन के दावे को मज़बूत करने के लिए....लोग कहते हैं इस घटना में सामधारी की बीवी और उसके बच्चे मर गए...मैं कहता हूं कि सामधारी की मौत हो गई...

गांव वाले कहते हैं भूख से मरी लीला..

50 साल की लीला देवी में दम तोड़ दिया....गांव वाले कहते हैं भूखमरी के चलते लीला देवी ने दम तोड़ा है..प्रशासन की दलील है कि लीला की मौत बिमारी से हुई है...घर की हालत कहती है दाने दाने को मोहताज था लीला का परिवार...जब तक पति के शरीर ने साथ दिया..फेरी कर अपना और पत्नी का पेट पालता रहा है..धीरे धीरे शरीर कमजोर हो गया...पैरों ने जवाब दे दिया...तो रात फांको पर गुजरने लगी...महिला के पति ने मुखिया के दरबार में भी हाजिरी लगाई...लाचारी की दुहाई दी ग़रीबी का रोना रोया...लेकिन महज आश्वासनों से परे उसे आज तक कुछ भी नहीं मिला... बात गांव की करे तों गांव में झोपड़ियों के साथ पक्के मकान भी हैं..सो लोगों ने कुछ दिनों तक जो बन पड़ा कुछ रूखा सूखा खाने को देते रहे फिर ये भी बंद हो गया..और एक दिन लीला की सांस रुक गई..लीला के घर में चूल्हा जलने भर को अनाज नहीं फिर भी परिवार बीपीएल सूची में नहीं है..जिले के अधिकारी गरीबी की बात तो मानते हैं लेकिन दावा करते हैं कि लीला की मौत बिमारी के चलते हुई है...अनाज और गरीबी का मुद्दा गरम हैं...सुप्रीम कोर्ट से लेकर सरकार तक अपना तर्क पेश कर रहे हैं..सवाल है लीला की मौत क्यों हुई....गांव वाले चिख कर कहते हैं भूख से...अधिकारी सहज हो कर कहते हैं..बिमारी से...कुछ कह नहीं सकते हैं लेकिन खानापुर की लीला के घर में खाने के लिए कुछ नहीं था...

ज़िंदगी का ज़ज्बा


समय के रेत पर,कदमों के निशान छोड़ जाएंगे
जब हम यह दुनिया और जहान छोड़ जाएंगे...
लिख सके तो लिखेंगे हम सारे हाल-ए-दिल
वर्ना दिल का गुमान छोड़ जाएंगे....
जब हम दुनिया और जहान छोड़ जाएंगे
कोशिश तो है..कि ला दूं बहार गुलशन में..
न एक बल्कि खिले ग़ुल हज़ार गुलशन में
न हुए हम मुक़म्मल हम अपनी कोशिश में..
वादा है अपना..एक तुफान छोड़ जाएंगे
जब हम दुनिया और जहान छोड़ जाएंगे
ज़मानेवालों न घबराओ मेरी हरक़त से..
हमारा क्या हम तो बेखौफ़ जिया करते हैं
कौन ज़िंदा है साथ लेकर जाने को...
जाने वाले तो अश्मसान छोड़ जाएंगे..
जब हम दुनिया और जहान जाएंगे...

Thursday, September 9, 2010

मीडिया के ग़रीब नत्था पर टिप्पणी

आपके इस लेख के लिए आपको धन्यवाद भी और बधाई भी..लेकिन एक सवाल दागना चाहूंगा सर...कहां बहस शुरु हुई...अगर शुरु भी हुई होगी तो आग जलने से पहले ही बुझा दी गई...कौन बहस शुरु करेगा...मीडिया के तथाकथित कद्दावर लोग...उनके पास इस मुद्दे पर बहस तो दूर सोचने के लिए समय कहां...जितना समय वो इस पर सोचने में देंगे..कोई प्रोग्राम तैयार कर लेंगे...जो टीआरपी उठाएगा...और फिर इसमें तो एक पक्ष वो ख़ुद हैं...कौन ज़िम्मेदार हैं स्ट्रिंगरों के इस हालत के लिए...स्ट्रिगरों की याद उन्हे तब आती है जब किसी दूसरे चैनल पर कोई ब्रेकिंग ख़बर चलती है...बड़े बड़े एक्सक्लूसिव बैंड चलते हैं...तब उनके निर्देश पर स्ट्रिंगर को फोन किया जाता हैं..ध्यान देने की बात है तब भी बात सहज ढंग से नहीं होती..डांटा जाता हैं..फटकारा जाता है...कुछ इस तरह के जुमले उखाड़े जाते हैं...तुम क्या (.....?...)उखाड़ते हो...तुम क्या नोच रहे थे...? कैसे ये ख़बर फला चैनल पर चल गई...तब ये कद्दावर लोग ये नहीं समझते कि जौनपुर शहर में रहने वाले स्ट्रिंगर के लिए डोभी इलाके में रात 2 बजे हुई घटना के लिए 50 किलोमीटर मोटरसाइकिल से भागना पड़ेगा...जौनपुर में ब्रॉड बैंड नहीं हैं...साइबर कैफे रात में 2 बजे नहीं खुलते...(और आप उसको इतना पैसा नहीं देते कि वो खुद का इंटरनेट लगवा सके...)..दूसरे स्ट्रिंगर ने भेज दिया तो उसका व्यवहार और जुगाड़ काम आ गया होगा... आप उम्मीद करते हैं कि हर बड़ी ख़बर फिल्ड से सबसे पहले आपके पास पहुंचे...आप उम्मीद करते हैं कि ख़बर एक्सक्लूसिव हो..आप नहीं चाहते कि दूसरे चैनल के स्ट्रिंगर को आपका स्ट्रिंगर कोई बड़ी ख़बर दे लेकिन वही ख़बर जब किसी दूसरे चैनल पर चलती है तो आप दावा के साथ कहते हैं (डांटते फटकारते हुए) कि 10 से 15 मिनट के अंदर वो ख़बर हमारे चैनल को मिल जानी चाहिए..कैसे संभव है...वो तो स्ट्रिंगर का जुगाड़ तंत्र हैं...भगवान जाने कैसे मैनेज करता है वो...नेपथ्य में जाने की बात क्या हैं..हकीक़त तो यही है कि नेपथ्य में ही है स्ट्रिंगर....ख़बर स्ट्रिंगर ब्रेक करता है...विजुअल स्ट्रिंगर भेजता हैं...और बड़ी ख़बर पर लाइव और फोनो बड़े पत्रकार का होता है...ब्यूरो चीफ़ का होता है...भले ही चीफ़ साहब को इस घटना की एबीसीडी भी न मालूम हो...जैसे ही चीफ़ साहब को पता नहीं फरमान या अनुरोध जारी होता है...वो स्ट्रिंगर को फोन करते हैं...वो भी डाटते हैं फटकारते हैं...फिर घटना को यूं बयां करते हैं जैसे वो खुद उनकी आंखो देखी हो....पहले तो मुख्यालय से ही लाइव का रंग रुप दे दिया जाता है...ज्यादा हुआ तो मय ब्यूरो साहब ओवी घटनास्थल पर पहुंच जाती है...फिर स्ट्रिंगर का काम होता है ब्यूरो साहब के चाय पानी की व्यवस्था करना...आखिर बीजलेरी और बिना चीनी की चाय पीते हैं साहब...फिर तमाशा शुरु होता हैं...जमुरे के अलाप की तरह व्यूरो साहब अपना ज्ञान बखारते हैं...नोयडाई मीडिया की भाषा में ख़बर तानी जाती है...चढ़ाई जाती है..चढ़ा जाता है...फाड़ा जाता है..खेला जाता है...) मेला जब सवाब पर होता है तो स्ट्रिंगर कहीं सामने नहीं आता...चीख चीख गला फाड़ने वाले ब्यूरो साहब का गला तर करने में लगा रहता है...फिर मेला उठ जाता है..बाजार ख़त्म हो जाती हैं.. लोग अपनी अपनी दुकानें बढ़ाने लगते हैं...(मीडिया की भाषा में अब चढ़ने चढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं...)फिर एक बार नेपथ्य में ग़ुम हुए उस तथाकथित स्ट्रींगर की तलाश शुरु होती है जिसकी एक ख़बर पर इतना बड़ा जमघट लगा था...स्ट्रींगर सहमते सहमते साहब के सामने हाजिर होता है...मानों ब्यूरो साहब कोई भगवान हो...अगर ब्यूरो साहब की तबीयत हरी है तो पीठ पर एक थपका देते हैं मानों पीठ के थपके से ही पेट भरता हो...स्ट्रींगर तो इस थपकी से ही मानों ज़िंदगी जीने का मूलमंत्र पा गया हो...अगर तबीयत हरी नहीं या हेड ऑफिस से बहुत बढ़िया का कॉम्प्लीमेंट नहीं मिला हो तब तो स्ट्रिंगर की खैर नहीं...जैसे कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो इस अदना से शख्स ने...और फिर एक बार स्ट्रिंगर की कहानी यहीं से ख़त्म...चलिए एक बार फिर असली बात पर आते हैं तो बात शुरु हुई थी स्ट्रिंगर पर बहस शुरु होने से....मैने कहा कि चैनल के संपादक को हर ख़बर पहले चाहिए...एक्सक्लूसिव चाहिए...लेकिन एक बात पर ताज्जुब होता है...जब स्ट्रिंगर का बिल बनता है तो यही संपादक चीखने लगता है चिल्लाने लगता है...मानों 5 से 8 हज़ार का बिल ना हो...चैनल का ख़जाना ही लुट रहा हो...मनमाने ढ़ंग से बिल में कटौती की जाती है...स्ट्रिंगर की ख़बर पर लगाम लगाने की बात होती है...सर जी उस समय कलेजा मुंह को आ जाता है..जब ऑफिस से मंगाई गई ख़बर पर भी स्ट्रिंगर को इसलिए पैसा नहीं मिलता कि ख़बर नहीं चली...लाखों की मोटी सैलरी पाने वाले लोगों का दिमाग यहीं चलता है...उनको स्ट्रींगर का पैसा ही भारी लगता है..खलता है ..अखरता है...यहीं लगता है कि कंपनी का भट्ठा बैठाया जा रहा है...वो एक बार भी नहीं सोचते कि इस ख़बर को कवर करने के लिए स्ट्रींगर को कितना मेहनत करना पड़ा होगा....सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर की भागा दौड़ी करनी पड़ी होगी..नहीं नहीं दिखता ये सब....हमेशा ही स्ट्रिंगर को आईडी जमा कराने की धमकी दी जाती है...मानों चैनल की आईडी नहीं हुई...स्वर्ग का टिकट हो गया...(क्योंकि कंपनी इतना तो मानकर ही चलती है कि चैनल आईडी ही उस शख्स की पहचान है...)...आप बताइए न सर हमेशा स्ट्रिंगर पर दलाली करने का आरोप लगाया जाता है...कौन मज़बूर करता है स्ट्रिंगर को दलाली करने के लिए...यही तथाकथित लोग मज़बूर करते हैं...हमेशा आईडी की दुहाई दी जाती है...बिल रोका जाता है...सालों बाद पैसा मिलता है तो वो भी काट-छांट कर...उसके बाद बॉस लोगों के न जाने कितने काम होते हैं....क्या करेगा बेचारा स्ट्रिंगर...और गुरुजी....हर जगह होता है यह..कोई एक चैनल की बात नहीं..किसी एक बॉस की हूक़ूमत नहीं...किसी एक स्ट्रींगर की दास्तां नहीं...यह कहानी हर जगह दुहराई जाती है....और सिर्फ स्ट्रींगर ही क्यों...कितनी ज़ुदा है कहानी है ऑफिस के ट्रेनी कॉपी राइटर की या डेस्क पर बैठे जूनियर लोगों की..? ख़बर लिखने से लेकर विजुअल कटवाने तक की जिम्मेदारी उनकी होती है...आजकल एक नया शगल चला है कुछ तथाकथित लोग पैकेज या लिखी स्टोरी को चेक करते हैं लेकिन इसके लिए उन लोगों की खुशामद करनी पड़ती है..तेल लगाना पड़ता है...सर से लेकर भइया तक की दुहाई देनी पड़ती है..फिर जाकर घंटो बाद स्टोरी चेक होती है यानि स्क्रीप्ट की रेड़ पिटी जाती है...और अगर कहीं कुछ गड़बड़ हुआ तो सुनना पड़ता है इसी जूनियर को..क्या मजाल जो किसी ग़लती या देरी के लिए ये ग़रीब ज़रा भी ज़ुबान खोल दे या फिर अपनी सफाई देना चाहे...निगाह गड़ाए रहते हैं ये तथाकथित सीनियर या यूं कहें कि ज्यादा जानकार लोग...बधाई है तो उनके सिर सेहरा...घिसाई है तो खड़ा ही है निरीह चेहरा....एक बात और सर..आजकल इनटर्न नहीं बिना पैसे के काम करने वाले गुलाम समझे जाते हैं वो नए ज़ुनूनी बच्चे जो एक ख्वाब पाल इस दुनिया में कदम रखते हैं...सपना दुनिया को बदलने का..सपना नए आयाम गढ़ने का....सब कुछ होता है सर इसी पत्रकारिता की दुनिया में जो चीख चीख कर दुसरों की कमियां गिनाता हैं...जो चिल्ला चिल्ला कर कहता है देखिए यही है वो बेरहम फैक्ट्री मालिक जो गरीब मजदूरों को बंधक बनाकर काम करवा रहा था...ग़रीब मज़दूरों की मज़बूरी का फायदा उठा रहा था..यहीं होता है सर...सबकुछ यहीं होता है.....माफ करिएगा सर कमेंट लिखने बैठा था..कमेंट्री लिखने लगा...यही कमी है मेरे अंदर....कुछ या यूं कहूं कि बहुत कुछ आप की भी देन है....बहरहाल आपने कुछ मुद्दे बड़े ग़जब के उठाएं हैं...कभी किसी भी स्ट्रिंगर की ट्रेनिंग नहीं होती...फाइव डब्ल्यू वन एच नहीं समझाया जाता....बिना इसके स्ट्रींगर से सटीक खबर की उम्मीद करना बेमानी है...आज ही भुखमरी पर एक पैकेज लिखा ह...सीख लिया तो वीडियो अपलोड करुंगा.....प्रणाम लिखिते रहिए....आग जलाए रखिए....आप को सलाम...आपके आग को सलाम....