Wednesday, September 28, 2011

अजब है तेरी भी क्या खूब खुदाई दिल्ली..

कितना दिया दर्द तु कितना रुलाई दिल्ली
मुझको तो आज तक तु रास ना आई दिल्ली
जहां मैं आया था, वहीं पर खड़ा हूं मैं अब तक
आखिर क्यों मुझको? दिल्ली तु बुलाई दिल्ली,
सुना है पल में तु तकदीर बदल देती है,
फकीर के हाथों की भी लकीर बदल देती है
मैने तो फर्ज किया, कुछ भी कभी न हर्ज किया
मेरे वजूद से फिर क्यूं इतनी रुसवाई दिल्ली
जहां भी लेते हैं तेरा नाम वफा से लेते हैं
मेरी ही साथ क्यों फिर इतनी बेवफाई दिल्ली
लोग तो नाम तेरा क्या अदा से लेते हैं
गालिब-ए-शे'र है तु, मीर-ए-रुबाई दिल्ली
मैं तो अब जाउंगा बता नाम तुझे क्या दे दूं
मेरे लिए तु बस एक हरजाई दिल्ली

नोट- क्रमश:...कविता ठीक भी करनी है..

Wednesday, September 7, 2011

मैं दिल्ली हूं
हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली
बिना कोई भेदभाव किए
सदियों से मैं सबको संभालती रही हूं
हर एक की चोट पर
मरहम लगाती रही हूं
मैं कभी सोती नहीं
हर वक्त जगती रहती हूं
बिना थके, बिना रुके
चौबीस घंटे चलती रहती हूं
मुझमें ग़जब की रवानी है...
लेकिन आज मेरी छाती घायल है
आज मेरी आंखों में पानी है..
दर्जनों बार मुझ पर हमले हुए
कई बार मेरा सीना चाक हुआ
जब जब आतंकियों ने जलाना चाहा मुझको
तब तब दहशतगर्दों का मंसूबा ख़ाक हुआ
आज दर्द है मुझे, आज मुझे पछतावा है
मैने अपनो को खोया है, मेरे सैकड़ों बच्चे घायल हैं
मुझ पर खेली गई खून की होली
मेरे संसद पर भी चली गोली
फिर भी न जागे हुक़्मरान मेरे
और न जागे सिपाही मेरे
आखिर ये कैसी नादानी है...
आज मेरी छाती घायल है
आज मेरी आंखों में पानी है

Thursday, September 1, 2011

उसकी याद आज भी ज़ेहन में बरकरार है

वो प्यारी सी लड़की, वो कंचन सी काया
है झील सी आंखों में सागर समाया
वो एक फूल है या फूलों की कली है
वो है चुलबुली पर वो कितनी भली है
उसके जुल्फ़ है काले बालल घनेरे
उसे सोचता उठकर नित नित सवेरे
उसके होठ है या गुलाबों की लाली
जिसे देखता अपलक बगिया का माली
माली है पर तु नज़र ना लगाना
इसे देखेगा सारा गुलशन ज़माना
उसके दांत है या हैं मोती चमकते
अगर लोग देखें तो चेहरे झलकते
सांसो में उसके है सुरभि का जादू
परिमल महकता है होकर बेकाबू
वो है एक परी या है परियों की रानी
मैं कागज़ की कश्ती वो बारिश की पानी
सागर सी आंखों में मस्ती मचलती,
कभी डुबती, बचती कश्ती संभलती
वो है एक ख्याल, आत्मचिंतन भी है
वो है मनचली, आत्ममंथन भी है
वो मेरे लिए हर संकल्प है
नहीं उसके बिना कोई विकल्प है
वो एक आवाज़ है, अजब अंदाज है
उसके बिना सूना हर साज है
वो मधुर संगीत है या कि शहनाई है
उसके लिए तन्हा तन्हाई है
वो आत्म है आत्मदर्पण भी है
मन का आवेग अर्पण भी है
उसके लिए मेरी बेचैन आंखे
उसके लिए आत्म-समर्पण भी है
है इक इक अदा उसकी कितनी निराली
जो उसको देखे बन जाए सवाली
वो कभी एक प्यारी बच्ची सी लगती
कभी ज़िंदगी एक सच्ची सी लगती
वो जो भी है यारों मुझे क्या पता
पर वो शायरी बहुत अच्छी सी लगती
सुंदरता की है वो अंतिम निशानी
जैसे हीरे की दानिश पर मोती सा पानी
वो बस एक शायरी है या कि पूरी गज़ल
जो भी है वो मेरे मन का महल है....