Thursday, November 3, 2011

जाने किस बात पर
देखो तो ये लड़ाई रहती है
बिना मुद्दा,बिना मसला,
संसद गरमाई रहती है।
हुक्मरां हैं ये हिंदुस्तां के,
हुनर मालूम है इनको
कहीं कुछ भी नहीं फिसले
पूरी तैयारी रहती है।

Tuesday, November 1, 2011

ये न जानता था कि आज उनका जन्मदिन है...

कभी तो इस पहलू में आकर के देखो,
न पलकें बिछा दूं तो फिर यार कहना
कभी जूस्तजूं जो किया आसमां का
फलक़ ना हिला दूं तो फिर यार कहना
कभी मेरे गुलशन का रुख जो करोगे
ज़मीं पर नहीं तुम गुलों पर चलोगे
तेरे नाज़ुक लबों से जो इतराई कलियां
न गुलशन जला दूं तो फिर यार कहना

जो मुझसे मुहब्बत करो करो एक पल को
इन आखों से मेरे वफा बनकर छलको
न खुद को लिखा दूं तो फिर यार कहना
कभी मेरे दिल को तुम दिल देके देखों
रुह तक ना हिला दूं तो फिर यार कहना

न खुद को मिटा दूं तो फिर यार कहना

Wednesday, September 28, 2011

अजब है तेरी भी क्या खूब खुदाई दिल्ली..

कितना दिया दर्द तु कितना रुलाई दिल्ली
मुझको तो आज तक तु रास ना आई दिल्ली
जहां मैं आया था, वहीं पर खड़ा हूं मैं अब तक
आखिर क्यों मुझको? दिल्ली तु बुलाई दिल्ली,
सुना है पल में तु तकदीर बदल देती है,
फकीर के हाथों की भी लकीर बदल देती है
मैने तो फर्ज किया, कुछ भी कभी न हर्ज किया
मेरे वजूद से फिर क्यूं इतनी रुसवाई दिल्ली
जहां भी लेते हैं तेरा नाम वफा से लेते हैं
मेरी ही साथ क्यों फिर इतनी बेवफाई दिल्ली
लोग तो नाम तेरा क्या अदा से लेते हैं
गालिब-ए-शे'र है तु, मीर-ए-रुबाई दिल्ली
मैं तो अब जाउंगा बता नाम तुझे क्या दे दूं
मेरे लिए तु बस एक हरजाई दिल्ली

नोट- क्रमश:...कविता ठीक भी करनी है..

Wednesday, September 7, 2011

मैं दिल्ली हूं
हिंदुस्तान की राजधानी दिल्ली
बिना कोई भेदभाव किए
सदियों से मैं सबको संभालती रही हूं
हर एक की चोट पर
मरहम लगाती रही हूं
मैं कभी सोती नहीं
हर वक्त जगती रहती हूं
बिना थके, बिना रुके
चौबीस घंटे चलती रहती हूं
मुझमें ग़जब की रवानी है...
लेकिन आज मेरी छाती घायल है
आज मेरी आंखों में पानी है..
दर्जनों बार मुझ पर हमले हुए
कई बार मेरा सीना चाक हुआ
जब जब आतंकियों ने जलाना चाहा मुझको
तब तब दहशतगर्दों का मंसूबा ख़ाक हुआ
आज दर्द है मुझे, आज मुझे पछतावा है
मैने अपनो को खोया है, मेरे सैकड़ों बच्चे घायल हैं
मुझ पर खेली गई खून की होली
मेरे संसद पर भी चली गोली
फिर भी न जागे हुक़्मरान मेरे
और न जागे सिपाही मेरे
आखिर ये कैसी नादानी है...
आज मेरी छाती घायल है
आज मेरी आंखों में पानी है

Thursday, September 1, 2011

उसकी याद आज भी ज़ेहन में बरकरार है

वो प्यारी सी लड़की, वो कंचन सी काया
है झील सी आंखों में सागर समाया
वो एक फूल है या फूलों की कली है
वो है चुलबुली पर वो कितनी भली है
उसके जुल्फ़ है काले बालल घनेरे
उसे सोचता उठकर नित नित सवेरे
उसके होठ है या गुलाबों की लाली
जिसे देखता अपलक बगिया का माली
माली है पर तु नज़र ना लगाना
इसे देखेगा सारा गुलशन ज़माना
उसके दांत है या हैं मोती चमकते
अगर लोग देखें तो चेहरे झलकते
सांसो में उसके है सुरभि का जादू
परिमल महकता है होकर बेकाबू
वो है एक परी या है परियों की रानी
मैं कागज़ की कश्ती वो बारिश की पानी
सागर सी आंखों में मस्ती मचलती,
कभी डुबती, बचती कश्ती संभलती
वो है एक ख्याल, आत्मचिंतन भी है
वो है मनचली, आत्ममंथन भी है
वो मेरे लिए हर संकल्प है
नहीं उसके बिना कोई विकल्प है
वो एक आवाज़ है, अजब अंदाज है
उसके बिना सूना हर साज है
वो मधुर संगीत है या कि शहनाई है
उसके लिए तन्हा तन्हाई है
वो आत्म है आत्मदर्पण भी है
मन का आवेग अर्पण भी है
उसके लिए मेरी बेचैन आंखे
उसके लिए आत्म-समर्पण भी है
है इक इक अदा उसकी कितनी निराली
जो उसको देखे बन जाए सवाली
वो कभी एक प्यारी बच्ची सी लगती
कभी ज़िंदगी एक सच्ची सी लगती
वो जो भी है यारों मुझे क्या पता
पर वो शायरी बहुत अच्छी सी लगती
सुंदरता की है वो अंतिम निशानी
जैसे हीरे की दानिश पर मोती सा पानी
वो बस एक शायरी है या कि पूरी गज़ल
जो भी है वो मेरे मन का महल है....


Sunday, August 21, 2011

मैं अन्ना का समर्थक हूं

मैं अन्ना का समर्थक हूं....
बाकी देशवासियों की तरह मैने भी अन्ना टीम का ड्राफ्ट किया जन लोकपाल बिल नहीं पढ़ा...लेकिन मैं अन्ना के इस आंदोलन का समर्थन कर रहा हूं बल्कि इस आंदोलन में शामिल होकर अब तो इस मुहिम का एक हिस्सा भी बन गया हूं क्योंकि सवाल सिर्फ जन लोकपाल बिल का ही नहीं है सवाल जन आंदोलन का है...जन भावनाओं का है..जनता की आवाज़ का है...सवाल सत्ता के मद में मगरुर मंत्रियों, नेताओं के तानाशाही रवैये का है..बहुत पहले मैने अंग्रेजी का कोई उपन्यास पढ़ा था जिसमें कुछ इस तरह की लाइनें लिखी थीं कि “सत्ता किसी की भी हो, तंत्र कोई भी हो अगर बहुत दिनों तक वो अपनी ही करता रहे..जनता की ओर से उसके खिलाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठे तो वो जड़ हो जाता है, अवाम(जनता/ प्रजा) को अपना गुलाम समझने लगता है..उसका रवैया तानाशाही का हो जाता है....फिर वो अपने को ही सर्वोपरि मानता है...अपने ही किए को बेहतर मानता है, उसे लगता है कि वहीं सच है और वो जो कह रहा है, कर रहा है वही सही...फिर अगर उसके खिलाफ़ कहीं से भी कोई भी आवाज़ उठे तो वो तुरंत इसे दबाने की या यूं कहे कि कुचलने की कोशिश करता है” (ऐसा हमारे देश में भी हो चुका है जब इंदिरा गांधी ने जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में उठे सम्पूर्ण क्रांन्ति को कुचलने को लिए क्या नहीं किया...यहां तक कि देश के इतिहास में इंमरजेंसी का काला अध्याय भी जुड़ गया...) इसलिए समय समय पर सत्ता के खिलाफ़ आवाज़ उठनी ही चाहिए...और अब अन्ना की अगुवाई में यही आवाज़ पूरे हिंदुस्तान में सुनाई दे रही है...चलिए पहले मैं सत्ता, सरकार और संसद की दलीलों पर ही बात करता हूं...सरकार, मंत्री और संसद में बैठे हुए कई सांसद इस बात की दुहाई दे रहे हैं कि कानून बनाना संसद का अधिकार है, मैं भी मानता हूं लेकिन सवाल है कि किस तरह का कानून और कब तक कानून ? क्या इतना अहम कानून आगे आने वाले दस बीस सालों में बनेगा..जब तक देश पूरी तरह खोखला हो चुका होगा, कंगाल हो चुका होगा..जब कर्ज का बोझ ढोते ढोते हम थक चुके होगें, निढाल हो चुके होंगे, हमारा भविष्य भी कर्जदार हो चुका होगा और हमारी आने वाली पीढ़ियां, हमारे बेटे बेटियां, हमारी नस्लें अपनी उम्र और औक़ात से ज्यादा का कर्ज लेकर पैदा होंगी, फिर आएगा कोई एक ढीला ढाला सा, गोलमोल सा कानून ? मैं भी अपने देश के प्रधानमंत्री का बहुत सम्मान करता हूं, मेरे लिए भी मेरे प्रधानमंत्री का दर्जा बहुत ऊंचा है, बहुत सम्मानित है, प्रधानमंत्री क्या बल्कि मैं तो अपने देश के हर नौकरशाह, क्लर्क और चपरासी का सम्मान करता हूं और उससे उम्मीद करता हूं कि वो कर्तव्यपरायण हो, ईमानदार हो और इसिलिए मैं ये भी चाहता हूं कि मेरा प्रधानमंत्री भी ईमानदार हो, मेरा प्रधानमंत्री ऐसा हो जिस पर देश ही नहीं बल्कि दुनिया नाज़ करे...और अगर इसिलिए मैं चाहता हूं कि मेरे देश के संविधान में ऐसी धारा हो मेरे देश में ऐसा कानून हो जो देश के प्रधानमंत्री का भी परीक्षण कर सके तो इसमें ग़लत क्या है? मैने देश के संविधान का उल्लंघन कहां किया? मैने देश के कानून का मज़ाक कहां उड़ाया? मैने संसद की गरिमा को ठेस कहां पहुंचाई? मैं सरकारी लोकपाल नहीं जानता, मैं जन लोकपाल नहीं जानता, मैं संसद के तौर तरीके, उसका अधिकार, उसकी सीमा नहीं जानता...सच तो ये है कि मैं संविधान का एबीसीडी भी नहीं जानता लेकिन मैं इतना जानता हूं कि जिस संविधान की दुहाई मेरे देश के हुक़्मरान, सत्ता के नुमाइंदे, संसद के कई सदस्य दे रहे हैं उसने मुझे इतना अधिकार दिया है कि मैं अपने अधिकारों की मांग कर सकता हूं, अपना भला बुरा सोच सकता हूं, अपने हक़ की लड़ाई लड़ सकता हूं और अपने हक़ की लड़ाई लड़ने के लिए अपने देश की सड़क पर भी उतर सकता हूं..कोई सरकार मुझे रोक नहीं सकती...सवाल ये भी है कि इस तरह की स्थिति आई ही क्यों? पिछले दिनों जो हमारे देश में हुआ, जो हमारे मंत्रियों, सरकारी संस्थाओं ने किया या जो उन पर आरोप लगे उसने पूरी दुनिया में हिंदुस्तान का सिर शर्म से नीचा कर दिया, ये सिर्फ पिछले दिनों की ही बात नहीं है ऐसा पहली बार नहीं हुआ पहले भी घोटाला हो चुका है, मंत्रियों पर घोटाले का, भ्रष्टाचार करने का आरोप लग चुका है, यहां तक कि प्रधानमंत्री तक पर ये आरोप लग चुका है लेकिन क्या हुआ? कौन दोषी ठहराया गया या किस पर आरोप सिद्ध हुआ, अरे जाने दीजिए अपने उपर आरोप लिए लिए कितने लोग तो परलोक सिधार गए लेकिन फैसला नहीं हो पाया, यहां तक की जांच ही पूरी नहीं हुई, मैं नहीं चाहता कि ये रवायत आगे भी चलती रहे, अन्ना नहीं चाहते कि उनके प्रधानमंत्री को लोग इस शको सुबहा से देखें, संविधान नहीं चाहता कि हमने अपने हक़ की लड़ाई क्यों नहीं लड़ी? अवाम नहीं चाहती कि उसके नेताओं पर, उसके अगुवा पर इस तरह का दाग लगता रहे, देश गर्त में जाता रहे जिससे आने वाली पीढियां हमसे पूछे कि हमने इसके खिलाफ़ आवाज़ क्यों नहीं उठाई? और यही कारण है कि आज जनता सड़क पर है, लोग अपने छोटे छोटे बच्चों को लेकर आंदोलन में पहुंच रहे हैं कि तुम भी इस क्रांति के सिपाही बन जाओ और देखो कभी ये मत कहना कि हमने इस रवायत, इस तानाशाही, इस दुर्व्यवस्था के खिलाफ़ आवाज़ नहीं उठाई...सब जानते और मानते हैं कि हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री सिर्फ शालीन ही नहीं बल्कि बेहद ईमानदार भी हैं लेकिन हमारे देश में अभी जो पिछले दिनों हुआ है उसने प्रधानमंत्री की आम जनता में क्या इमेज़ बनाई है...क्या प्रधानमंत्री की ओर कीचड़ नहीं उछला? क्या लगता है क्या इससे हमारे मन में गुबार पैदा नहीं हुआ? क्या इससे हजारे के दिल को ठेस नहीं पहुंची? तो फिर क्यों न करें लोग जन लोकपाल बिल की मांग, अन्ना क्यों न करें अनशन, आंदोलन, हम क्यों न करें उनका समर्थन? एक गवांर, गरीब, बुजुर्ग, बेवा महिला जब अपना पेट पालने के लिए वृद्धा या विधवा पेंसन का कागज बनवाने जाती है और उसको दस तरह का नियम कानून बताकर उससे घूस मांगा जाता है, फिर अगर किसी तरह ले देकर उसने कागज बनवा लिया तो फिर 150 रुपए पेंसन पाने के लिए उसे 50 से 70 रुपए फिर घूस देना पड़ता तो उससे पूछिए उसके दिल पर क्या गुजरती है, उसे अपनी ज़िदगी ही बोझ लगने लगती है, किसान को जब सोसाइटी से खाद बीज के लिए, अपनी साल भर की पूंजी लगाकर उगाई गई और आगे की आजीविका, सूखती फसल को सीचने के लिए बिगड़े सरकारी ट्रांसफॉर्मर का तार जुड़वाने का घूस देना पड़ता है तो उसका कलेजा मुंह को आ जाता है...नीचे का करप्शन तभी ख़त्म होगा जब उपर से शुरुआत होगी, एक नई पहल होगी...सभी घूस देते हैं, हजारों लोग घूस लेते हैं लेकिन क्या करें मज़बूरी है, दस्तूर है उपर देना होता है, मंत्री तक पहुंचाना होता है, भ्रष्टाचार से सब परेशान हैं, महंगाई सबको मारती है, इसलिए लोगों को अन्ना की आवाज़ मधुर लग रही है, आंदोलन की धूप सुहानी लग रही है, आंदोलन का हर नारा राष्ट्रगान लग रहा है और लोग सड़क पर उतर रहे हैं....इसलिए आज मैं भी इस आंदोलन का हिस्सा हूं, सरकार के लिए तो यह एक अच्छा मौक़ा है उसे आगे बढ़कर पहल करनी चाहिए, अन्ना और उनकी टीम को धन्यवाद करना चाहिए, अन्ना को हाथो हाथ लेना चाहिए और सिर्फ देश में ही नहीं, अवाम के लिए ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में एक मिसाल क़ायम करना चाहिए....

Monday, March 28, 2011

अजीब शहर है अजब सियासत है.

ऩजर उठी थी तो आगाज़-ए-साज़ और बजा
नज़र झुकी कि अंजाम बदल जाता है...

मुझे न खौफ़ है न खुंदश है इस रवायत से,
मलाल ये कि मेरा काम बदल जाता है..

प्याला खनका भी नहीं,पैमाना छलका भी नहीं
नशा जमा भी नहीं कि जाम बदल जाता है

अजीब महफिल है,अजीब आलम है..
दो महीना भी नहीं,निज़ाम बदल जाता है।

भरोसा मिलता है कुछ घर लौट कर जाते जाते
वापस आने पर पैगाम बदल जाता है

यहां इंसान भी फिरता है हालात-ए-वक्त की तरह
चेहरा देखकर सलाम बदल जाता है...

मिज़ाजे हुक्मरां तय करती है हवा-ए-रुख़
वक़्त के साथ खास-ओ-आम बदल जाता है

हर-एक-शख्स ने चेहरे पर डाल रख्खी है नक़ाब
ज़रुरत जैसी वैसा नाम बदल जाता है

वही है देखो जिसने अंधेरों में फैलाई अफ़वा
सुबह हुई तो वो सरेआम बदल जाता है..

अजीब शहर है अजब सियासत है..
सुबह कुछ और है...शाम बदल जाता है..