कोरे कागजों में सिमटी ग़ुमनाम जिंदगी... मैं अजब हूं, अगर अजब दास्तान लिख सकूं कोरे कागज़ पर हृदय का सब तुफ़ान लिख सकूं...
Thursday, September 9, 2010
मीडिया के ग़रीब नत्था पर टिप्पणी
आपके इस लेख के लिए आपको धन्यवाद भी और बधाई भी..लेकिन एक सवाल दागना चाहूंगा सर...कहां बहस शुरु हुई...अगर शुरु भी हुई होगी तो आग जलने से पहले ही बुझा दी गई...कौन बहस शुरु करेगा...मीडिया के तथाकथित कद्दावर लोग...उनके पास इस मुद्दे पर बहस तो दूर सोचने के लिए समय कहां...जितना समय वो इस पर सोचने में देंगे..कोई प्रोग्राम तैयार कर लेंगे...जो टीआरपी उठाएगा...और फिर इसमें तो एक पक्ष वो ख़ुद हैं...कौन ज़िम्मेदार हैं स्ट्रिंगरों के इस हालत के लिए...स्ट्रिगरों की याद उन्हे तब आती है जब किसी दूसरे चैनल पर कोई ब्रेकिंग ख़बर चलती है...बड़े बड़े एक्सक्लूसिव बैंड चलते हैं...तब उनके निर्देश पर स्ट्रिंगर को फोन किया जाता हैं..ध्यान देने की बात है तब भी बात सहज ढंग से नहीं होती..डांटा जाता हैं..फटकारा जाता है...कुछ इस तरह के जुमले उखाड़े जाते हैं...तुम क्या (.....?...)उखाड़ते हो...तुम क्या नोच रहे थे...? कैसे ये ख़बर फला चैनल पर चल गई...तब ये कद्दावर लोग ये नहीं समझते कि जौनपुर शहर में रहने वाले स्ट्रिंगर के लिए डोभी इलाके में रात 2 बजे हुई घटना के लिए 50 किलोमीटर मोटरसाइकिल से भागना पड़ेगा...जौनपुर में ब्रॉड बैंड नहीं हैं...साइबर कैफे रात में 2 बजे नहीं खुलते...(और आप उसको इतना पैसा नहीं देते कि वो खुद का इंटरनेट लगवा सके...)..दूसरे स्ट्रिंगर ने भेज दिया तो उसका व्यवहार और जुगाड़ काम आ गया होगा... आप उम्मीद करते हैं कि हर बड़ी ख़बर फिल्ड से सबसे पहले आपके पास पहुंचे...आप उम्मीद करते हैं कि ख़बर एक्सक्लूसिव हो..आप नहीं चाहते कि दूसरे चैनल के स्ट्रिंगर को आपका स्ट्रिंगर कोई बड़ी ख़बर दे लेकिन वही ख़बर जब किसी दूसरे चैनल पर चलती है तो आप दावा के साथ कहते हैं (डांटते फटकारते हुए) कि 10 से 15 मिनट के अंदर वो ख़बर हमारे चैनल को मिल जानी चाहिए..कैसे संभव है...वो तो स्ट्रिंगर का जुगाड़ तंत्र हैं...भगवान जाने कैसे मैनेज करता है वो...नेपथ्य में जाने की बात क्या हैं..हकीक़त तो यही है कि नेपथ्य में ही है स्ट्रिंगर....ख़बर स्ट्रिंगर ब्रेक करता है...विजुअल स्ट्रिंगर भेजता हैं...और बड़ी ख़बर पर लाइव और फोनो बड़े पत्रकार का होता है...ब्यूरो चीफ़ का होता है...भले ही चीफ़ साहब को इस घटना की एबीसीडी भी न मालूम हो...जैसे ही चीफ़ साहब को पता नहीं फरमान या अनुरोध जारी होता है...वो स्ट्रिंगर को फोन करते हैं...वो भी डाटते हैं फटकारते हैं...फिर घटना को यूं बयां करते हैं जैसे वो खुद उनकी आंखो देखी हो....पहले तो मुख्यालय से ही लाइव का रंग रुप दे दिया जाता है...ज्यादा हुआ तो मय ब्यूरो साहब ओवी घटनास्थल पर पहुंच जाती है...फिर स्ट्रिंगर का काम होता है ब्यूरो साहब के चाय पानी की व्यवस्था करना...आखिर बीजलेरी और बिना चीनी की चाय पीते हैं साहब...फिर तमाशा शुरु होता हैं...जमुरे के अलाप की तरह व्यूरो साहब अपना ज्ञान बखारते हैं...नोयडाई मीडिया की भाषा में ख़बर तानी जाती है...चढ़ाई जाती है..चढ़ा जाता है...फाड़ा जाता है..खेला जाता है...) मेला जब सवाब पर होता है तो स्ट्रिंगर कहीं सामने नहीं आता...चीख चीख गला फाड़ने वाले ब्यूरो साहब का गला तर करने में लगा रहता है...फिर मेला उठ जाता है..बाजार ख़त्म हो जाती हैं.. लोग अपनी अपनी दुकानें बढ़ाने लगते हैं...(मीडिया की भाषा में अब चढ़ने चढ़ाने के लिए कुछ भी नहीं...)फिर एक बार नेपथ्य में ग़ुम हुए उस तथाकथित स्ट्रींगर की तलाश शुरु होती है जिसकी एक ख़बर पर इतना बड़ा जमघट लगा था...स्ट्रींगर सहमते सहमते साहब के सामने हाजिर होता है...मानों ब्यूरो साहब कोई भगवान हो...अगर ब्यूरो साहब की तबीयत हरी है तो पीठ पर एक थपका देते हैं मानों पीठ के थपके से ही पेट भरता हो...स्ट्रींगर तो इस थपकी से ही मानों ज़िंदगी जीने का मूलमंत्र पा गया हो...अगर तबीयत हरी नहीं या हेड ऑफिस से बहुत बढ़िया का कॉम्प्लीमेंट नहीं मिला हो तब तो स्ट्रिंगर की खैर नहीं...जैसे कितना बड़ा गुनाह कर दिया हो इस अदना से शख्स ने...और फिर एक बार स्ट्रिंगर की कहानी यहीं से ख़त्म...चलिए एक बार फिर असली बात पर आते हैं तो बात शुरु हुई थी स्ट्रिंगर पर बहस शुरु होने से....मैने कहा कि चैनल के संपादक को हर ख़बर पहले चाहिए...एक्सक्लूसिव चाहिए...लेकिन एक बात पर ताज्जुब होता है...जब स्ट्रिंगर का बिल बनता है तो यही संपादक चीखने लगता है चिल्लाने लगता है...मानों 5 से 8 हज़ार का बिल ना हो...चैनल का ख़जाना ही लुट रहा हो...मनमाने ढ़ंग से बिल में कटौती की जाती है...स्ट्रिंगर की ख़बर पर लगाम लगाने की बात होती है...सर जी उस समय कलेजा मुंह को आ जाता है..जब ऑफिस से मंगाई गई ख़बर पर भी स्ट्रिंगर को इसलिए पैसा नहीं मिलता कि ख़बर नहीं चली...लाखों की मोटी सैलरी पाने वाले लोगों का दिमाग यहीं चलता है...उनको स्ट्रींगर का पैसा ही भारी लगता है..खलता है ..अखरता है...यहीं लगता है कि कंपनी का भट्ठा बैठाया जा रहा है...वो एक बार भी नहीं सोचते कि इस ख़बर को कवर करने के लिए स्ट्रींगर को कितना मेहनत करना पड़ा होगा....सौ से डेढ़ सौ किलोमीटर की भागा दौड़ी करनी पड़ी होगी..नहीं नहीं दिखता ये सब....हमेशा ही स्ट्रिंगर को आईडी जमा कराने की धमकी दी जाती है...मानों चैनल की आईडी नहीं हुई...स्वर्ग का टिकट हो गया...(क्योंकि कंपनी इतना तो मानकर ही चलती है कि चैनल आईडी ही उस शख्स की पहचान है...)...आप बताइए न सर हमेशा स्ट्रिंगर पर दलाली करने का आरोप लगाया जाता है...कौन मज़बूर करता है स्ट्रिंगर को दलाली करने के लिए...यही तथाकथित लोग मज़बूर करते हैं...हमेशा आईडी की दुहाई दी जाती है...बिल रोका जाता है...सालों बाद पैसा मिलता है तो वो भी काट-छांट कर...उसके बाद बॉस लोगों के न जाने कितने काम होते हैं....क्या करेगा बेचारा स्ट्रिंगर...और गुरुजी....हर जगह होता है यह..कोई एक चैनल की बात नहीं..किसी एक बॉस की हूक़ूमत नहीं...किसी एक स्ट्रींगर की दास्तां नहीं...यह कहानी हर जगह दुहराई जाती है....और सिर्फ स्ट्रींगर ही क्यों...कितनी ज़ुदा है कहानी है ऑफिस के ट्रेनी कॉपी राइटर की या डेस्क पर बैठे जूनियर लोगों की..? ख़बर लिखने से लेकर विजुअल कटवाने तक की जिम्मेदारी उनकी होती है...आजकल एक नया शगल चला है कुछ तथाकथित लोग पैकेज या लिखी स्टोरी को चेक करते हैं लेकिन इसके लिए उन लोगों की खुशामद करनी पड़ती है..तेल लगाना पड़ता है...सर से लेकर भइया तक की दुहाई देनी पड़ती है..फिर जाकर घंटो बाद स्टोरी चेक होती है यानि स्क्रीप्ट की रेड़ पिटी जाती है...और अगर कहीं कुछ गड़बड़ हुआ तो सुनना पड़ता है इसी जूनियर को..क्या मजाल जो किसी ग़लती या देरी के लिए ये ग़रीब ज़रा भी ज़ुबान खोल दे या फिर अपनी सफाई देना चाहे...निगाह गड़ाए रहते हैं ये तथाकथित सीनियर या यूं कहें कि ज्यादा जानकार लोग...बधाई है तो उनके सिर सेहरा...घिसाई है तो खड़ा ही है निरीह चेहरा....एक बात और सर..आजकल इनटर्न नहीं बिना पैसे के काम करने वाले गुलाम समझे जाते हैं वो नए ज़ुनूनी बच्चे जो एक ख्वाब पाल इस दुनिया में कदम रखते हैं...सपना दुनिया को बदलने का..सपना नए आयाम गढ़ने का....सब कुछ होता है सर इसी पत्रकारिता की दुनिया में जो चीख चीख कर दुसरों की कमियां गिनाता हैं...जो चिल्ला चिल्ला कर कहता है देखिए यही है वो बेरहम फैक्ट्री मालिक जो गरीब मजदूरों को बंधक बनाकर काम करवा रहा था...ग़रीब मज़दूरों की मज़बूरी का फायदा उठा रहा था..यहीं होता है सर...सबकुछ यहीं होता है.....माफ करिएगा सर कमेंट लिखने बैठा था..कमेंट्री लिखने लगा...यही कमी है मेरे अंदर....कुछ या यूं कहूं कि बहुत कुछ आप की भी देन है....बहरहाल आपने कुछ मुद्दे बड़े ग़जब के उठाएं हैं...कभी किसी भी स्ट्रिंगर की ट्रेनिंग नहीं होती...फाइव डब्ल्यू वन एच नहीं समझाया जाता....बिना इसके स्ट्रींगर से सटीक खबर की उम्मीद करना बेमानी है...आज ही भुखमरी पर एक पैकेज लिखा ह...सीख लिया तो वीडियो अपलोड करुंगा.....प्रणाम लिखिते रहिए....आग जलाए रखिए....आप को सलाम...आपके आग को सलाम....
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