Wednesday, September 28, 2011

अजब है तेरी भी क्या खूब खुदाई दिल्ली..

कितना दिया दर्द तु कितना रुलाई दिल्ली
मुझको तो आज तक तु रास ना आई दिल्ली
जहां मैं आया था, वहीं पर खड़ा हूं मैं अब तक
आखिर क्यों मुझको? दिल्ली तु बुलाई दिल्ली,
सुना है पल में तु तकदीर बदल देती है,
फकीर के हाथों की भी लकीर बदल देती है
मैने तो फर्ज किया, कुछ भी कभी न हर्ज किया
मेरे वजूद से फिर क्यूं इतनी रुसवाई दिल्ली
जहां भी लेते हैं तेरा नाम वफा से लेते हैं
मेरी ही साथ क्यों फिर इतनी बेवफाई दिल्ली
लोग तो नाम तेरा क्या अदा से लेते हैं
गालिब-ए-शे'र है तु, मीर-ए-रुबाई दिल्ली
मैं तो अब जाउंगा बता नाम तुझे क्या दे दूं
मेरे लिए तु बस एक हरजाई दिल्ली

नोट- क्रमश:...कविता ठीक भी करनी है..

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